________________ भी मंद हो जाती है। यह तीव्रता या मन्दता, यह तारतम्य-यह सब हमारे कषायों, आवेगों और राग-द्वेष के आधार पर होता है। इसलिए साधना का एक बड़ा सूत्र है-जो करो, अनासक्त भाव से करो। आसक्ति को तीव्र मत होने दो। इसका तात्पर्य यह है कि आसक्ति की जितनी तीव्रता होगी, कर्म का फल उतना ही तीव्र होगा। आसक्ति की जितनी मन्दता होगी, कर्म का फल उतना ही मन्द होगा। अनुभव की तीव्रता और मन्दता आसक्ति की तीव्रता और मन्दता पर आधृत है। ___ यह सच है कि साधना करने वाला भी प्रवृत्ति को सर्वथा रोक नहीं सकता और साधना करने वाले के समक्ष प्रवृत्ति को रोकने का प्रश्न नहीं है। साधना करने वाले के लिए खाना भी जरूरी है, श्वास लेना भी जरूरी है. बोलना भी जरूरी है, सोचना भी जरूरी है। जीवन-संचालन की जो क्रियाएं, जो प्रवृत्तियां हैं, वे सारी जरूरी हैं। उन्हें रोका नहीं जा सकता। कोई मौन करता है तो वह आधा घंटा का, दो घंटे का, दस घंटे का, एक दिन का, दस दिन या एक महीने तक का मौन कर सकता है। बारह वर्ष भी मौन रह सकता है। किन्तु आखिर बोलना ही पड़ेगा। बिना बोले काम कैसे चलेगा? बोलने की एक स्वाभाविक व्यवस्था है। उसे तोड़ा नहीं जा सकता। चलने की भी एक व्यवस्था है। वह भी स्वाभाविक है। जीवनभर एक स्थान पर बैठा नहीं रहा जा सकता। ध्यानकाल में एक स्थान पर बैठ सकते हैं, किन्तु पूरे दिन तक तो ध्यान नहीं किया जा सकता। कायोत्सर्ग-काल में कुछ समय तक स्थिर रहा जा सकता है। किन्तु जीवन से मृत्यु-पर्यन्त ऐसा नहीं हो सकता। प्रवृत्ति को छोड़ा नहीं जा सकता। चिन्तन भी एक प्रवृत्ति है। उसे भी रोका नहीं जा सकता। यह ठीक है कि ध्यानकाल में हम निर्विकल्प रह सकते हैं, निर्विकार रह सकते हैं, किन्तु यह सदा-सर्वदा के लिए नहीं हो सकता। क्या चिन्तन के बिना काम चल सकता है? चल नहीं सकता। चिन्तन जरूरी है, गति जरूरी है, क्रिया जरूरी है। शरीर की, मन की और वाणी की प्रवृत्ति को रोका नहीं जा सकता। . जब हम कर्म की बात कर रहे हैं तो हमें सूक्ष्म जगत् तक पहुंचना है। प्रवृत्ति और निवृत्ति-दोनों के पीछे एक तत्त्व है। उस तक पहुंचने कर्म की रासायनिक प्रक्रिया : 2 47