________________ प्रत्येक प्रवृत्ति को निष्पन्न करने के लिए साधना अपेक्षित होती है। कोई भी कार्य साधना के बिना नहीं होता। कोई भी कार्य साध्य के बिना नहीं होता। प्रत्येक प्रवृत्ति में साध्य, साधन और साधना-तीनों होते हैं। आप कोई भी प्रवृत्ति करें, उसका साध्य होगा कि आप उसको क्यों करना चाहते हैं। उसका साधन होगा कि आप किन-किन साधनों से उसे निष्पन्न करना चाहते हैं। उसकी साधना भी होगी कि आपको उसकी निष्पत्ति में कैसे तपना-खपना होगा। __ हम जिस संदर्भ में साधना की चर्चा कर रहे हैं, वह अन्यान्य साधनाओं से कुछ भिन्न है। हमारी समूची साधना की धारा दो तटों के बीच में ही बहे। एक तट है-स्थिरता का और दूसरा तट है-समता का, वीतरागता का, अकषाय भाव का, राग-द्वेष की न्यूनता का। इन दो तटों के बीच साधना की धारा बहे, यही काम्य है। फिर चाहे हम कोई भी प्रवृत्ति करें या निवृत्ति करें, काम करें या न करें, बोलें या न बोलें, सोचें या न सोचे, खाएं या न खाएं। हम कुछ भी करें, उन दोनों तटबंधों को इतना मजबूत बनाएं रखें कि उनमें कहीं दरार न होने पाये, छेद न होने पाये, और पानी इधर-इधर छितरे बिना तटबंधों के बीच में बहता रहे। प्रश्न होता है कि कर्म के आकर्षण की प्रक्रिया और संश्लेष की प्रक्रिया के पीछे हेतु क्या है? ये दोनों प्रवृत्तियां दो आस्रवों के द्वारा होती हैं। एक आस्रव का नाम है-योग और दूसरे आस्रव का नाम है-कषाय। योग आस्रव और कषाय आस्रव-ये दो आस्रव हैं, जिनके द्वारा कर्मों का आकर्षण और कर्मों का संश्लेष होता है। चंचलता स्पष्ट है, कषाय उतना स्पष्ट नहीं है। चंचलता स्पष्ट दीखती है, कषाय भीतर छिपा रहता है। वह दिखाई नहीं देता। हमें गूढ़ में जाना होगा, रहस्य में जाना होगा। हमें कहीं-कहीं रहस्यवादी भी बनना होगा और जो छिपा हुआ है, उसके तल तक पहुंचना होगा। मनोविज्ञान ने मन के तीन विभाग किये हैं१. अदस् (Id) मन।