________________ घटता-बढ़ाता है और कषाय ही फलदान की शक्ति में तीव्रता या मंदता लाता है। कर्म का आकर्षण केवल चंचलता के आधार पर होता है। __कर्म को रोकना है तो हमें उसी क्रम से चलना पड़ेगा कि पहले चंचलता कम होती चली जाये, स्थिरता की मात्रा बढ़ती चली जाये। कायोत्सर्ग इसीलिए किया जाता है कि शरीर की चंचलता कम हो, समाप्त हो। हम श्वास की प्रेक्षा करते हैं, श्वास को मंद करते हैं, श्वास को सूक्ष्म करते हैं, इसीलिए कि चंचलता कम हो जाये। काया की चंचलता कम हो। श्वास काया का ही एक हिस्सा है। वह शरीर से भिन्न नहीं है। शरीर की चंचलता को कम करने के लिए श्वास का संयम करते हैं। मन को स्थिर करने का प्रयत्न करते हैं. निर्विचार और निर्विकल्पना की साधना करते हैं कि चंचलता कम हो। मौन करते हैं ताकि वाणी की चंचलता कम हो। जब वाणी की चंचलता कम होती है, मन की चचंलता कम होती है और शरीर की चंचलता कम होती है तो कर्म-परमाणुओं का आना कम हो जाता है। - दूसरी बात है-काया की जो थोड़ी-बहुत प्रवृत्ति शेष रहती है, वचन की अल्पमात्रा में प्रवृत्ति शेष रहती है औन मन की भी यत्किंचित् प्रवृत्ति रहती है, उसके साथ भी आसक्ति न जुड़े, राग-द्वेष का भाव न जुड़े। तटस्थता का विकास हो, समता का विकास हो ताकि अवशिष्ट चंचलता या प्रवृत्ति के द्वारा जो भी कर्म-परमाणु आकृष्ट हों वे लम्बे समय तक हमारे साथ न टिक सकें और अपना तीव्र अनुभव, तीव्र प्रभाव हमारे ऊपर न डाल सकें। इससे साधना का कोई भी आयाम शेष नहीं रहता। समूची साधना इसमें समा जाती है। साधना का सार यही है-चंचलता को रोकना और समभाव में रहना। साधना की समूची धारा इन दो तटों के बीच बहती है। ये दो ही तट हैं साधना के। कोई भी साधना की ऐसी धारा नहीं है जो इन दो तटों को तोड़कर, इन दो तटों का अतिक्रम कर प्रवाहित होती हो। यदि कोई ऐसी धारा है तो वह मोक्ष की, स्वतन्त्रता की साधना नहीं है। और कुछ साधना हो सकती है। वह वीतरागता की साधना नहीं है, और कुछ हो सकती है। वैसे तो प्रत्येक प्रवृत्ति साधना है। कोई भी प्रवृत्ति साधना के बिना नहीं होती। __कर्म का बन्ध 57