________________ दौड़ती थी, बाहर को सुनने, बाहर को देखने, बाहर को चखने, सारी-की-सारी प्रवृत्ति. बहिर्गामी हो रही थी, जैसे ही साधना का विकास हुआ, साधना के मार्ग में आये, दिशा बदल जाती है, उत्सुकता समाप्त हो जाती है। यह अनुत्सुकता भीतर की उत्सुकता बन जाती है। जब भीतर उत्सुकता जागती है तब बाहर की उत्सुकता समाप्त हो जाती है। यह मार्गान्तरीकरण की प्रक्रिया साधना के विकास की प्रक्रिया है। उदात्तीकरण क्षयोपशम की प्रक्रिया है। हम कर्मों का शोधन करें। शोधन कर प्रवृत्ति के साथ होने वाले दोष को मिटा दें। प्रवृत्ति के साथ राग और द्वेष की जो धारा जुड़ रही है, और वह राग-द्वेष जो निरंतर हमारे कर्मों में फल देने की क्षमता पैदा कर रहा है, जो हमारे विचारों को प्रभावित कर रहा है, उसे हम क्षीण कर दें। उस धारा को मोड़ दें। उसे उपशांत कर दें। इस उदात्तीकरण की प्रक्रिया के द्वारा हम उस बिन्दु पर पहुंच जाएं, जहां प्रवृत्ति तो है किन्तु उसके सारे दोष समाप्त हैं। जो दोष उसके साथ जुड़ते थे, वह धारा समाप्त है। यह है साधना की सार्थकता। कर्मों में जो फलदान की शक्ति है उसे कम करने के लिए साधना की जाती है। उसके अभ्यास से एक मार्ग मिल जाता है। वह साधना की समाप्ति नहीं है, प्रारंभ है। इस यात्रा का प्रारंभ करने वाला जो भी प्रवृत्ति करता है वह पहले जैसी प्रवृत्ति नहीं रहती। अब उस प्रवृत्ति के साथ आसक्ति का, राग-द्वेष का वह प्रवाह नहीं जुड़ता जो पहले जुड़ता था। या तो उसका मार्ग बदल जायेगा यह वह सर्वथा निरुद्ध हो जायेगा। यदि हम इस तथ्य को ठीक समझ लें तो कर्म के फलदान की शक्ति को भी समझ लेंगे, साधना की सार्थकता को समझ लेंगे। कर्म में जो फलदान की शक्ति है, वह स्वाभाविक है, स्वयं की व्यवस्थागत है। इसमें किसी दूसरे का हस्तक्षेप नहीं है। किसी व्यवस्थापक की अपेक्षा नहीं है। यह स्वतः संचालित व्यवस्था है। इसमें कोई विचार की आवश्यकता नहीं है कि फल कैसे देना है? एक आदमी घृणा करता है, ईर्ष्या करता है, असहिष्णुता का बर्ताव करता है। उसको क्या फल देना है, किसी को सोचने की जरूरत नहीं कर्म की रासायनिक प्रक्रिया : 2 51