________________
उपक्रम
--.कल्प की परिभाषा और भेद
कल्प का अर्थ है-नीति, आचार, मर्यादा, विधि भौर समाचारी। आचार्य उमास्वाति कहते है जो कार्य ज्ञान, शील, तप, का उपग्रह (वृद्धि) करता है और दोषों का निग्रह (शमन) करता है वह निश्चय दृष्टि से कल्प है और शेष अकल्प है।' कल्प सूत्र की टीका के अनुसार श्रमणो का आचार कल्प है।२ कल्प के आगम, भाष्य, नियुक्ति और चूणि साहित्य मे अनेक भेद, प्रभेद निरूपित हुए हैं। उन सभी की यहाँ चर्चा न कर केवल दस कल्पो अर्थात् कल्प के दस प्रकारों पर ही विचार किया जा रहा है । वे दस कल्प इस प्रकार हैं :
(१) आचेलक्य, (२) औद्देशिक, (३) शय्यातर-पिण्ड, (४) राज-पिण्ड, (५) कृतिकर्म, (६) व्रत, (७) ज्येष्ठ, (८) प्रतिक्रमण, (६) मासकल्प, (१०) पर्युषणा-कल्प ।
आचेलक्य
'चेल' शब्द का अर्थ-वस्त्र है । न-चेल, अचेल है । 'अ' शब्द का एक अर्थ अल्प भी है । जैसे- अनुदरा। आचारांग के टीकाकार ने ईषत् (अल्प) अर्थ में नञ्-समास मान कर अचेल का अर्थ 'अल्पवस्त्र' किया है।" उत्तराध्ययन और कल्प सूत्र की टीकाओं मे भी यही अर्थ मान्य हुआ है।
श्रमण संस्कृति में श्रमणों के लिए दो प्रकार के कल्प विहित हैं-जिनकल्प और स्थविरकल्प । नियुक्ति और भाष्य के अनुसार जिनकल्पी श्रमण वह होता है जो वजऋषभनाराच संहनन वाला हो, तथा कम से कम नव पूर्व की तृतीय आचार वस्तु का श्रु तपाठी हो और अधिक से अधिक कुछ कम दस पूर्व तक श्र तपोठी हो। जिनकल्पिक श्रमण भी पहले स्थविरकल्पी ही होता है। स्थविरकल्पिक श्रमण ही जिनकल्प को स्वीकारता है।