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बीकानेर के व्याख्यान ]
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बुला लावे । दासी गई, किन्तु महाराज को ध्यानमुद्रा में बैठा देखकर वह सहम गई । भला उसका साहस कैसे हो सकता था कि वह महाराज के ध्यान के भङ्ग करने का प्रयत्न करे ! वह धीमे-धीमे स्वर से पुकार कर लौट गई । उसके बाद दूसरी दासी आई, फिर तीसरी आई, मगर ध्यान भंग करने का किसी को साहस न हुआ । महारानी अचला बार-बार दासियों को भेजने के अपने कृत्य पर पश्चात्ताप करके कहने लगीं - स्वामी को बुलाने के लिए दासियों का भेजना उचित नहीं था, स्वयं मुझे जाना चाहिए था यद्यपि मैंने पति से पहले भोजन करने की भूल नहीं की है, लेकिन स्वयं उन्हें बुलाने न जाकर दासियों को भेजने की भूल अवश्य की है ।
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समय अधिक हो जाने के कारण भोजन ठण्डा हो गया था । इस कारण दासियों का दूसरा भोजन बनाने की आशा देकर महारानी अचला स्वयं महाराज अश्वसेन के समीप गई ।
महारानी सोच रही थीं-पत्नी, पति की अर्धांगिनी है । उसे पति की चिन्ता का भी भाग बँटाना चाहिए । जो स्त्री पति की प्रसन्नता में भाग लेना चाहती है और चिन्ता में भाग नहीं लेना चाहती, वह आदर्श पत्नी नहीं हो सकती । ऐसी स्त्री पापिनी है ।
अचला देवी ने जो विचार किया, क्या वह स्त्री का धर्म नहीं है ? अवश्य । किन्तु आजकल तो बचपन में ही लड़
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