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( १५ ) लिए पुण्य और पाप दोनों आहार समझे । जिसके पुण्य अधिक और पाप कम, वह सुख प्राप्त करता है, तथा पाप अधिक व पुण्य कम वह दुःख प्राप्त करता है । और पुण्य और पाप दोनों से परे रहने पर मोक्ष प्राप्त होता है । परन्तु संसारी सर्व संयोगी जीव को पुण्य और पाप दोनों नियमा उदय भाव में प्राप्त होते हैं परन्तु ऐसा कोई जीव नहीं । यहां प्रश्न होता है कि- जब सर्व जीव पाप पुण्य युक्त है तो कोई जीव पुण्यवंत कहलाता है और कोई पापी वह किस प्रकार ? इसका उत्तर है- जिस प्रकार आहार के दृष्टांत से जिसमें जिसको अधिकता होती है वह उसी के अनुसार पुकारा जाता है। जिस जीव के शुभ कमों का उदय अधिक होता है और अशुभ कर्मों का उदय कम होता वह देवता प्रमुख की गति पाता है और उसी को पुण्यवान कहा जाता है निरोगता एवं पथ्य आहार के समान । इसी प्रकार जिसके अशुभ कर्म का उदय अधिक हो और शुभ कर्मों का उदय कम हो तो उसे नरकादि अशुभ गति प्राप्त होती है उसे पापात्मा कहते हैं। जिस आत्मा के पाप पुण्य दोन क्षीण हो जाते हैं तब वह मोक्ष प्राप्त करता है। श्री उत्तराध्ययन सूत्र के इक्कीसवें अध्याय में कहा है-"दुविहं खवेऊणं य पुण्ण पावं' अर्थात् पुण्य पाप दोनों को क्षय करके आत्मा सिद्ध वुद्ध वनता है । यह कथन उदय की अपेक्षा से है।