________________
(१८२)
फल चार गति से फिरना बताया है। फिर श्री आचागंग सूत्र में 'लोभे अलोभेणं दुर्गच्छ माणे' यहां दुर्गच्छा ठीक कहा है । श्री भगवती सूत्र में गर्दा संयम कहा है, आतं के दो भेद कहे हैं, १-प्रशस्त, २-अप्रशस्त कैसे ? कपाय से ठीक होता है, पर अन्तर में कपाय अशुभ ही है इस दृष्टांत से कहे हैं । शुभ योग की अपेक्षा राग शुभ दिखाई देना है । जैसे स्वयं तो चोर है पर साहुकार के साथ रहने से साहुकार जैसा प्रतिभाषित होता है । तथा बड़ी कपाय छूटी तथा छोटी कपाय रही, इमलिये शुभ दिखाई देता है । जैसे कृष्ण लेश्या के अपेक्षा से नील शुभ लेश्या तथा नील से कापोत शुभ, पर वास्तव में तीनों लेश्या अशुभ ही है, इस न्याय से संमार का राग छूटने से धर्म का राग आया जो पूर्व की अपेक्षा से सुलम दिखाई पड़ता है, पर स्वयं अशुभ है इसके छूटने से मुक्ति होगी। जैसे गौतम स्वामी से वीर भगवान ने कहा, मुझ से राग हटा
और जब राग हटाया तब केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ। ऐसे इस कपाय से यथाग्व्यात चारित्र नहीं आया, सातवें गुण स्थान में मुक्ति की बांछा है, ऐमा होते हए भी मुक्ति नहीं पाता, तथा इसके छूटने से मुक्ति मिलती है, इस अपेक्षा से कपाय त्याग ने योग्य है, कपाय छूटी तथा योग शुभ हुआ इससे कषाय को शुभ गिना है । जैसे एक राग तो स्त्री