Book Title: Jain Tattva Shodhak Granth
Author(s): Tikamdasmuni, Madansinh Kummat
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Swadhyayi Sangh Gulabpura

View full book text
Previous | Next

Page 217
________________ (१६५) योग्य नहीं, परन्तु ग्रहण करने योग्य है, श्री उत्तराध्ययन सूत्र के पांचवें अध्याय की १८वीं गाथा में कहा है 'मरणंपि मपुन्नाणं' पुण्यवन्त का मरण सुधरता है। श्री उत्तराध्ययन के तेरहवें अध्याय की २१वीं गाथा में "धणियंतु पुन्नाई अकुव्वमाणे” पुण्य नहीं करेगा तो वाद में बहुत पछतावेगा । तथा इसी सूत्र के बीसवें अध्याय में 'हे महा भाग गौतन' यहाँ पुण्य के नाम से सम्बोधित किया है, पुण्य को चोर कहने वाला भूठा है । पुण्य बोलाऊं (रक्षक) के समान है । क्योंकि श्री भगवती सूत्र के १४वें। शतक के सातवें उद्देश्य में लव सप्तम देवता को सात लव प्रमाण से आयुष्यं शुभ होता है तो मोक्ष में जाते ऐसा. कहा है। यहां पुण्य रूप वोलाऊं क्षय होगया है। इसलिये मोक्ष नहीं गये, पुनः कोई कहे कि पुण्य सोने की वेदी है तथा पाप लोहे की वेडी है, यह बात सिद्धान्त की अपेक्षा से नहीं मिलती है, क्योंकि बेड़ी तो होना दुखदाई और पुण्य सुखदाई है। श्री आचारांग सूत्र के छठे अध्याय के दूसरे उद्देश्य में पुण्य वेडी जहाज समान बताई है। श्री भगवती सूत्र के तेवीसवें शतक में शरीर पुण्य कति को नाव कहा है, जब तक समुद्र में बैठा है, वहां तो नाव ग्रहण करने योग्य है। यदि वीच में नाव ना तो पानी में डूचेगा, किन्तु समुद्र पार उतरने के - अपने घर जाने समय नाव ग्रहण नहीं होती है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229