Book Title: Jain Tattva Shodhak Granth
Author(s): Tikamdasmuni, Madansinh Kummat
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Swadhyayi Sangh Gulabpura

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Page 216
________________ (१६४) पुद्गल है, धर्म उसका फल है, तथा पुण्य बंध है, धर्म मोक्ष है, तथा पुण्य चार गति में भटकाता है, धर्म चार गति छुड़ाता है, पुण्य छूटने वाला है। धर्म ग्रहण करने योग्य है, इसलिये धर्म पुण्य एक नहीं है, किन्तु भाव पुण्य अर्थात् पुण्य की करणी व धर्म एक ही है । किसी नय में पुण्य ग्रहण करने योग्य भी है, इसलिए धर्म की तथा पुण्य की करणी एक है । श्री भगवती सूत्र के चौथे शतक के दशवे उद्देश्य में ओषध मिश्रित भोजन के दृष्टांत से बताया है । अट्ठारह पाप से निवृत्ति पाने पर कल्याणकारी क्रिया उपार्जन करते हैं, तथा श्री ठाणांग सूत्र के दसवें ठाणे में दस प्रकार से कल्याणकारी कर्म करना बताया है, श्री ज्ञाता सूत्र के आठवें अध्याय में बीस प्रकार से तीर्थङ्कर नाम प्रकृति वांधे। इस अप्रेक्षा से भाव पुण्य की करणी निर्वद्य है। जो ग्रहण करने योग्य है । श्री उत्तराध्ययन सूत्र के इक्कीसवें अध्याय की २४वीं गाथा में कहा है, "दुविहं रववेऊणय पुन्न पांच' तथा इसी सूत्र के दसवें अध्याय की १५वीं गाथा में कहा है - "मंसरह सुहा सुहेहि कम्मेहि दोनों कर्म भटकाने वाले हैं। . . . यहां कोई अविवेक शिरोमणी ऐमा कहता है कि पुण्य एकान्त छोड़ने योग्य है, पुण्य चोरी व खोड़े अर्थात् पैर बंधन समान है, पुण्य सोने की बेड़ी के समान है, ऐसा कहना अयुक्त है, क्योंकि . व्यवहार नय में पुण्य छोड़ने

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