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स्वभाविक हो जाता है, परन्तु ऐसा जानते हैं कि घास बाद में छोड़नी पड़ेगी, तो मैं पहिले ही छोड़दू । ऐसा मानकर यदि घास को पहिले ही उखाड़ फैंक दिया तो गेहूँ पैदा नहीं होंगे ऐसे ही संवर व निर्जरा करते हुए पुण्य सहज ही उत्पन्न होता है. पर इच्छा नहीं करे । अकेले गेहूँ उत्पन्न नहीं होते इसलिये घाम की रक्षा करते हैं, इस न्याय से समुच्चय में पुण्य ज्ञेय पदार्थ है ३ । पाप एकांत अशुभ योग होने से हेय पदार्थ है ४ । आश्रव के दो भेद १ - शुभ आश्रव, २ - अशुभ आश्रव । यहां मिथ्यात्व आदि अशुभ आश्रव वह एकान्त हेय पदार्थ छोड़ने योग्य है, तथा शुभ योग आदि शुभ आश्रव पुण्य के समान ज्ञेय पदार्थ ( जानने योग्य) है, व्यवहार नय में ग्रहण करने योग्य है । निश्चय में छूटने वाला है । क्योंकि श्री उत्तराध्ययन सूत्र के उन्नतीसवें अध्याय में कहा है कि "पच्चक्खाणं आसवदाराई निरु भई” जितनी जितनी वस्तु का त्याग किया वे सब पदार्थ आश्रव है । ऐसे खाना पीना, उठना, बैठना, सोना, बोलना, ये सब आश्रव निश्चय में छोड़ने योग्य है । किसी धार्मिक क्रिया का प्रत्याख्यान नहीं होता है ।
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यहां कोई कहे कि साधु तप करे, मौन रखे, जिन कल्पीपन ग्रहण करे, संभोग त्याग करे, धर्म कथा नहीं