Book Title: Jain Tattva Shodhak Granth
Author(s): Tikamdasmuni, Madansinh Kummat
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Swadhyayi Sangh Gulabpura

View full book text
Previous | Next

Page 227
________________ f (२०५) माणस्स, एंगदा संभियावा, असभियावा, समिया होई उवेहाए" जिसे स्वयं सत्य मानता है, वही बात सच्ची है तथा असत्य स्वयं के हृदय में है । ऐसी ही सिद्धांत वाचना की धारणा बना रखी है, परन्तु उस बात का दुराग्रह नहीं है, अपनी मान्यता की स्थापना तथा दूसरे की मान्यता की' उत्थापना नहीं करता है, राग द्वेष रहित श्रद्धा करता है, तो ऐसी अवस्था में विचार करने पर दोनों की मान्यता हो सकती है, तथा कोई धारणा सत्य या भूठी है किन्तु स्वयं के हृदय में प्रगाढ़ धारणा वन गई है उसी के प्रति आग्रह रखता हुआ अधिक दुराग्रह करे, अपनी मान्यता की स्थापना करे, दूसरे की मान्यता नहीं माने, केवली को नहीं सम्भलावे, अधिक जिंद करे वह सत्य हो तथा झूठ - किन्तु मिथ्या रूप में परिणित होजाती है । इसलिये अपनी धारणा का आग्रह नहीं करता हुआ केवली प्ररूपित सत्य है ऐसा निश्चय रखें । केवल ज्ञानी के द्वारा निर्णित वस्तु की अपने को खेंच नहीं करना चाहिये केवलीं गम्य है, ऐसी धारणा रखने योग्य है । यहां कोई कहे कि मेरे तो शंका नहीं है । मैं सूत्र के न्याय से सहमत हूँ, मैं केवली गम्य ' है ऐसा क्यों कहूँ ? छः काया के जीव केवली द्वारा प्ररूपित है वैसा ही मैं कहता हूँ ? उन्हें ऐसा कहे कि छः काया को जीव तो सर्व जैन मात्र मानते हैं । उसमें तो 4. } ܐ

Loading...

Page Navigation
1 ... 225 226 227 228 229