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(१६३) एकान्त कारण स्थापित करते हैं, कई एकान्त कार्य स्थापित करते हैं, ये दोनों ही दुर्नय के प्ररूपक लगते हैं। फिर वीतराग के तो जहां कारण कार्य ये दोनों शुद्ध होवे वहां धर्म है । उपादेय पदार्थ आदरने योग्य है। जहां कारण कार्य दोनों अशुद्ध हो वहां अधर्म है । यह हेय पदार्थ है। जहां कार्य शुद्ध, कारण अशुद्ध हो वहां अल्प पुण्य है। जहां कारण शुद्ध, कार्य अशुद्ध वहां अल्प पाप है, परन्तु ये सब ज्ञेय पदार्थ हैं।
... अब नौ पदार्थ पर तीन बोल कहते हैं, प्रथम तो एक नय में नौ पदार्थ ज्ञेय हैं। सूत्र में स्थान स्थान पर कहा है कि जो श्रावक श्राविकाएं नौ पदार्थ के जानकार हैं, उनकी अपेक्षा से है, फिर कोई हेय जानकर छोड़ता है, कोई उपादेय जानकर ग्रहण करता है इस अपेक्षा से तो आगे जाकर दो पक्ष रहे परन्तु यहां तीन पक्ष की अपेक्षा दिखाते हैं । जीव तथा अजीव जानने योग्य हैं। इनमें
जीव अजीव ग्रहण करने योग्य हैं व कई छोड़ने योग्य है, परन्तु समुच्चय में ज्ञेय पदार्थ है । पुण्य जानने योग्य है क्योंकि पुण्य छूटने से मुक्ति जावेंगे । पुण्य माथ लिये ति नहीं जाते हैं । कोई ऐसा कहे कि पुण्य धर्म है, धर्म
पुण्य एक ही है । यह बात एकांत रुप में नहीं मिलती है एवं क्योंकि पुण्य कर्म हैं, धर्म कर्म नहीं है, पुण्य