Book Title: Jain Tattva Shodhak Granth
Author(s): Tikamdasmuni, Madansinh Kummat
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Swadhyayi Sangh Gulabpura

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Page 206
________________ (१८४) पेमाणु रागरत्ता' ये राग भी शुभ बताया है, तथा अनुधनाओं सरीर कलीमली कलुसंवि मुच्चंति' यह दुगंछा भी शुभ बतायी है । इसके अनुसार कपाय को भी शुभ व्यवहार कहते हैं तथा निश्चय में तो सर्व कषाय क्षय होने से ही वीतरागपना होता है परन्तु कपाय रहते वीतरागता नहीं होती । इसलिये सर्व कपाय अशुद्ध है । भगवान की आज्ञा में नहीं है, इसीलिये दसवें गुणस्थान तक सूत्र विपरीत चलना कहा है; इस न्याय से आज्ञा तो नहीं पर व्यवहार से कपाय में शुभ आश्रव वताया है । शुभ आश्रय से निर्जरा तथा पुण्य होता है। श्री उत्तराध्ययन सूत्र के उन्नतीसवें अध्याय में कहा है 'वंदणयाएणं नियागोयं कम्म खवेइ, उच्च गोयं निबंधइ' इति वचनात् । वंदन से निर्जरा तथा पुण्य बंध दोनों कहा है, निर्जरा करते हुए बंध कैसे होवे ? जैसे चड़स आदि से कुए का पानी निकालते समय पानी वापिस गिरता है, वैसे निर्जरा करते हुए छठे गुण स्थान में नियमा सात कम का बंध होता है, परन्तु बांधते अल्प है और तोड़ते अधिक है, तथा तोड़ने का कामी है बांधने का कामी नहीं, इसलिये समय समय में उज्ज्वल होता रहता है। जैसे किसी पर एक हजार रुपये का कर्ज है, उसके व्यापार करते हुये समय समय पर व्याज अविक बढ़ता है, किसी समय कमाता भी है, पर अधिक

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