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कमाता है जिससे देना कम होता रहता है और धन बढ़ता जाता है ऐसे ही साधु प्रमुख ने पहिले कर्म रूपी कर्ज संचित किया है, उनके प्रताप से समय समय में सात आठ कर्म बांधने रूप व्याज बहता है, तथा बीच में शुभ योग आदि कमाई भी होती है व्याज, किराया सब चुका देने के पश्चात् दिनदिन प्रति कर्म कम होते जाते हैं, ज्ञान आदि रुप धन बढ़ता जाता है, जिससे मुक्ति मिलती है, परन्तु. जहां तक आश्रव नहीं रोके वहां तक कम का बंधन नियम है, इसलिये संवर होवे उस समय सात पदार्थ उत्कृष्ट उत्पन्न होते है, पर संबर में निश्चय से पुण्य पाप एक भी नहीं है क्योंकि उत्तराध्ययन सूत्र के उनतीसवें अध्याय में कहा है 'संवरे कायगुत्ते पुन्न पावासब निरोहं करेइ' इति वचनात् । यहां पुण्य, पाप दोनों को आश्रव कहा है, इन दोनों आश्रवों को रोके उसे संवर कहा है । इमलिए संवर अकेला ही शद्ध निष्कलंक है पर नव पदार्थ व्यवहार से शामिल है, नव पदार्थ शामिल होने से एक जीव कहलाता है ।
॥ इति नव तत्त्व में भेला अलग द्वार सनाप्तम् ।। । २४. हेय, ज्ञेय, उपादेय द्वार के
उपादेय किसे कहते हैं ? जिस कार्य को करने की भगवान की आज्ञा है, उस कार्य को करने की साधु आजा है । जिस कार्य के करने से धर्म हो और सब के आदग्ने