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होवे, मात आठ कदम आगे बढकर नमस्कार करे, आहार पानी के लिये घर लेजाकर अन्नादि देवे. वहां साधु आज्ञा नहीं देवे अत: आज्ञा बिना एकान्त पाप होवे तो वह पाप किसने कराया ? यदि साधु गृहस्थ के घर नहीं आते तो श्रावक पाप कैसे करते ? इस दृष्टि से यह पाप साधु ने कराया, तुम्हारी श्रद्धा से साधु का दूसरा करण भंग हुआ, तथा आहार असूझता अर्थात् सावध हुआ, परन्तु वास्तव में एकान्त पाप नहीं । ऐसे ही प्रतिक्रमण में उठते बैठते. स्वामिवात्सल्य करते, प्रभावना दलाली प्रमुख धर्म कार्य भी साधु की आज्ञा बिना करते हैं यदि इसमें एकान्त पाप होता है तो उसे आप निषेध क्यों नहीं करते ? भगवान ने सूत्र में पाप का स्थान २ पर निषेध किया है, संबुज्झमाणे नरे मडमं पावाओ अप्पाणं निवट्टएज्जा" इति वचनात् । इस अपेक्षा से पाप नहीं है, फिर भी सूर्यगांग सूत्र के पांचवें अध्याय में प्रश्न १ में नर्क के दुख बताये हैं, तथा श्री उत्तराध्ययन सूत्र के उन्नीसवें अध्याय में जहां मद्य, मांस भक्षण आदि हिंसादि कर्तव्य का फल नरक में भोगे उसका स्मरण किया पर स्वामिवात्सल्य, दान, जीव रक्षा आदि का स्मरण नहीं किया, इसलिये पाप नहीं है यहां पर कई लोग ऐसा कहे कि आप आज्ञा बाहर धर्म कहते हो अतः ऐसा कहने वालों को ऐसा कहे कि आप आज्ञा का वास्विक अर्थ नहीं जानते तथा एकांत