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पूंजना, परठना इत्यादि ज्ञेय कहलाते हैं जो जानने योग्य है ।
फिर इस विषय में गृहस्थी पूछे कि इसमें धर्म है या पाप है ? तब साधु मौन रखे, यह कार्य मैं करूं या नहीं करूं ? तो साधु ऐसा न कहे कि तूं कर अथवा मत कर, समुच्चय कथा प्रसंग में कहे कि अमुक ने ऐसा किया, तथा विधिवाद में ऐसा कहे कि मिथ्यात्वी ऐसा करे, श्रावक साधु ऐसा नहीं करे, ऐसा स्पष्ट रूप में कहे, पर ऐसा न कहे कि ऐसा करना वैसा नहीं करना, यह कार्य करना, यह कार्य नहीं करना, ऐसा नहीं बोले, ऐसा सुनने पर इनमें से कोई अधिक धर्म का काम होवे, उसे अंगीकार करे तथा अधिक पाप का कार्य होवे उसे छोड़े, उनकी क्रिया साधु को नहीं लगती है । फिर कथानक प्रसंग देखकर चतुर श्रावक होता है वह स्वयं के लिये गुणकारी क्रिया देखे वही करे | अवगुणकारी बात देखे उसे छोड़े, यह गृहस्थ की इच्छा है, साधु की आज्ञा नहीं । निषेध भी नहीं करे उसे ज्ञ ेय पदार्थ कहते हैं ।
यहां कोई ऐसा कहे कि, साधु आज्ञा दे वह धर्म तथा आज्ञा नही दे वह पाप । ऐसा कह कर ज्ञेय पदार्थ को निरर्थक करता है, जो एकान्त विरुद्ध विचार करना है । यदि साधु गृहस्थ, के घर जावे, वहां श्रावक उठकर खड़ा