Book Title: Jain Tattva Shodhak Granth
Author(s): Tikamdasmuni, Madansinh Kummat
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Swadhyayi Sangh Gulabpura

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Page 208
________________ (१८६) योग्य हो । साधुपन, समकित, श्रावकपन, संवर, त्याग, वैराग्य, निवृचि भाव, पढ़ना, मनन करना, तप, जप आदि सब उपादेय कहलाते हैं । हेय किसे कहते हैं ? जिस कार्य में करने की भगवान की आज्ञा नहीं साधु भी उसके लिये मना करते हैं। कोई पूछे कि यह कार्य करने से मुझे क्या फल मिलेगा ? इस पर साधु कहे कि, तुम्हें पाप होगा, हिंसा, झूठ, चोरी, क्रोध, मान, कपाय, रागद्वप, निंदा, निद्रा, प्रमाद, अधर्म, मिथ्यात्व, कुपात्र सेवा, आश्रय इत्यादि हेय कहलाते हैं, अतः सब छोड़ने योग्य हैं । ज्ञेय किसे कहते हैं ? जिस कार्य को करने की साधु आजा न देवे किन्तु निषेध भी नहीं करे, पुण्य पाप नहीं बतावे, गुण दोष नहीं दिखावे, संदेह में बात रखे, मौन रहे, जिस काम के करने से किसी जीव को गुण होवे किसी को अवगुण होवे जैसे परव, सत्तुकार, मिथ्यात्व का दान, वीतराग के सामने नाटक, भक्ति, स्तोत्र, साधारण गृहस्थी का दान, स्वामी वात्सल्य, प्रभावना, दलाली, गृहस्थी की विनय, साधु के निमित्त गृहस्थी उठे बैठे, शरीर के योग प्रवर्तावे, जीव दया के लिये धन आदि दे, मिश्र भाषा, मिश्र पानी, शील इत्यादि रखने के लिये मरण, सुदर्शन सेठ के समान, असत्य मृग आदि बचाने के लिये, अशुद्ध दान साधु को देना, गृहस्थी का योग व्यापार, वैयावच्च,

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