Book Title: Jain Tattva Shodhak Granth
Author(s): Tikamdasmuni, Madansinh Kummat
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Swadhyayi Sangh Gulabpura

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Page 46
________________ ( ३२ ) स्थानों पर देवता नारकी में भी असंज्ञी कहा है । ५. प्राण आठ ६. पर्याप्ति-चार ७. आयुष्य- जघन्य उत्कृष्ट अन्त मु हुत का ८. अवगाहना—अंगुली का असंख्यातवां भाग __९. आगत-दो १०. गत-दो एवं ११. गुणस्थान-दो। ___जीव का बारहवां भेद-'अप्संज्ञी पंचेन्द्रिय का पर्याप्ता' १. गति–तिर्यंच २. जाति-पंचेन्द्रिय ३. काया- त्रस ४. दंडक - बीसवां ५. प्राण-नौ ६. पर्याप्ति-पांच ७. आयुष्य-जघन्य अन्तमु हुर्त का उत्कृष्ट क्रोड़ पूर्व का ८. अवगाहना-जघन्य अंगुल के असंख्यातवां भाग उत्कृष्ट एक हजार योजन की, असंज्ञी जलचर की अपेक्षा से ९. आगत-दो १०. गत-चार ११. गुणस्थान-एक । ____ यहां सब स्थानों पर लब्धि अपर्याप्ता लिए हैं, करण अपर्याप्ता नहीं। सम्प्रति पर्याप्ति पूरी नहीं की परन्तु अनन्तकाल में पूरी करके मरेंगे। जो जीव अपर्याप्ता नहीं मरता है उस जीव को करण अपर्याता कहते हैं वह लब्धि अपर्याप्ता नहीं कहलाता लव्धि अपर्याप्ता तो उसे कहते हैं जो पर्याप्ति पूरी किए विना मरण प्राप्त करते हैं। जीव का तेरहवां भेद "संज्ञी पंचेन्द्रिय का अपर्याप्ता" १. गति-चार २. जाति-पंचेन्द्रिय ३. काया-त्रस ४. दंडक-सोलह ५. प्राण-आठ ६. पर्याप्ति-चार भाषा पर्याप्ति एवं मन पर्याप्ति मव जीव साथ बांधते हैं। ये दोनों पर्याप्ति पूरी होने पर जीव पर्याप्ता कहलाता है।

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