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(१०५) ऐसा कदापि नहीं अपितु भगवान ने तो जैसा किया वैसा कहा, यह तो अनुकम्पा थी अतः अनुकम्पा फरमाई, यदि पाप होता तो पाप फरमाते, भगवान तो वीतराग पुरुप थे, वे अपने दोष कभी नहीं छिपाते । यहां कोई कहे कि यदि भगवन्त धर्म जानते थे तो फिर अपने दो शिष्यों को क्यों नहीं बचाये ? उसका उत्तर उस समय भगवन्त वीतराग भाव से अर्थात् केवल ज्ञान से उनके आयुष्य का अंत जानते थ तथा अवश्यंभावी भाव कभी नहीं मिटते फिर केवली के परिणाम अवस्थित होते हैं हायमान बर्द्धमान नहीं होते छद्मस्त के तीनों परिणाम है केवली को तप करने के तथा, विनय वैयावच्च करने के परिणाम भी नहीं होते किन्तु छद्मस्थ में होते हैं, तो क्या छद्मस्थ को पाप लगता है ? पर ऐसा जानना कि केवली का आचार भिन्न है इसलिये भगवन्त को पाप नहीं लगा एवं प्रायश्चित भी नहीं लिया। तथा गोशाला का कार्य आश्चर्यभृत (अच्छेरा) माना गया है, श्री उपासक दशा सूत्र में श्रेणिक राजा ने कसाई खाना बन्द कराया जिसका उसे पाप हुआ हो ऐसा सूत्र में नहीं कहा है, जो पाप कहते हैं वे सूत्र के चिराधक है ।
यहां कोई कहते है कि धर्म कहां फरमाया ?" सूत्र में स्थान स्थान पर "माहणो माहणो" शब्द कहा