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धर्म कर्म द्वार
१ - जीव तत्त्व धर्म कर्म कुछ भी नहीं है । धर्म जीव का गुण है, इसलिये जीव को धर्म कहते हैं । अशुभ उपयोग की अपेक्षा कर्म भी कहते हैं ।
२ - अजीव तत्त्व में धर्म, आकाश, काल ये चार धर्म कर्म कुछ भी नहीं है। पुद्गल परमाणुओं से असंख्य प्रदेशी पर्यन्त धर्म कर्म कुछ भी नहीं है । अनन्त प्रदेशी में धर्म कर्म कुछ भी नहीं है । कई एक कर्म । पर धर्म नहीं है ।
३ - पुण्य तत्त्वं कर्म है, धर्म नहीं । तथा पुण्य की करणी को धर्म भी कहते हैं ।
४- पाप तत्त्व कर्म है, धर्म नहीं ।
५ - आश्रव तत्त्व कर्म है धर्म नहीं । तथा शुभ योग की किसी अपेक्षा से धर्म भी कहते हैं श्री उत्तराध्ययन सूत्र के चौतीसवें अध्याय में लेश्या का वर्णन है, यहां लेश्या आश्रव है पर निर्जरा होती है इसलिये धर्म कहा है ।
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६- संवर तत्त्व धर्म नहीं है कर्मों का संवर करता है अर्थात् रोकता है इस अपेक्षा से संवरना ( रोकना) कर्म कहलाता है ।