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साधु को काम करते हुए जो हिंसा हो वह द्रव्य हिंसा है, यह कैसे ? श्री ठाणांग सूत्र के दगनें ठाणे में दस शस्त्र बताये हैं, उनमें नौ तो द्रव्य शस्त्र बताये हैं तथा दशवां भाव शस्त्र बताया है, यहां अत को शस्त्र बताया है । अत्रत साधु को नहीं लगता है, इसलिये द्रव्य हिसा है, भाव हिंसा नहीं है । फिर एक अपेक्षा से जानता हुआ नदी उतरने प्रमुख हिसा करता है, उसे भाव हिंसा कहते हैं, तथा यत्ना पूर्वक चलते हुए ईर्या समिति से अज्ञानपन में कीड़ी आदि पैर नीचे आजाय उसे भगवान ने श्री भगवती सूत्र में द्रव्य हिंसा कहा है क्योंकि बिना उपयोग से मरते हैं, साधु के मारने के भाव नहीं है अतएव द्रव्य हिंसा कहते
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तथा एक अपेक्षा सरागी जीव दसवें गुणस्थान तक सूत्र से विपरीत चलता है क्योंकि वहां तक कषाय का उदय है घट्टे, सातवें, आठवें में समय समय पर कर्म बांधते हैं । इसलिये भाव हिसा की सम्भावना दिखती है, उपरांत नहीं । क्योंकि श्री भगवती सूत्र के अठारहवें शतक में कहा है कि भावित आत्मा अणगार को इर्या से चलते हुए पैर नीचे मुर्गी का बच्चा मर जावे तो इरियावही क्रिया लगती परन्तु पाप नहीं बंधता है, इस दृष्टि से दस गुणस्थान तक भाव हिंसा की सम्भावना दिखती है, तथा कोई कहते हैं कि समकित दृष्टि को भाव हिंसा नहीं होवे यह बात मिलना।