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(१५८) संवर द्रव्य की अपेक्षा तो पहिले गुणस्थान में भी होता है और समकित विना निश्चय पांच में से संवर सम्यकदृष्टि को होते हैं। तेरहवें गुणस्थान तक तो देश संवर है और चौदहवें में सर्व संबर है । इसलिये चौदहवें का नाम शैल कहते, पर्वत के समान अडोल है, सर्व संवर का ईश्वर है। इस कारण पूर्ण संबर है, सिद्धों में संवर 'नहीं है, क्योंकि श्री भगवती सूत्र के पहिले शतक के दूसरे उद्देश्य में 'इह भविए. विनाणे परभविए वि तदुभय भविए' कहा है, चारित्र संयम और तप इसी भव के बताये हैं 'इंस' अपेक्षा से तथा ज्ञान को भी अपञ्जवसिए
कहा है, चारित्र की स्थिति क्रोड़ पूर्व की है उसका पर्यव ' भी नहीं बताया है, श्री भगवती सूत्र के दूमरे शतक के पहले उद्देश्य में खंधक के अधिकार में तथा चारित्र आत्मा की अपेक्षा श्री भगवती मूत्र के बारहने शतक के दमने उद्देश्य में ज्ञान आत्मा के स्वामी अनन्तगुणा बताये हैं। इसलिये व्यवहार संबर क्रिया रूप में कोई नहीं है किन्तु निश्चय मंवर समकित आदि पांच है । निवृत्ति भाव सिद्धों में सभी होते हैं। प्रवृत्ति भाव 'एक भी नहीं होता है । यद्यपि सिद्धों में समपन है तथापि सामायिक चारित्र नहीं है, क्योंकि चारित्र का कार्य कर्मों को रोकने का है अतः कर्म बिना किसको रोके ?. चारित्र के गुणों को तो रोकते नहीं है,