________________
(१५१)
१
जिस कारण से समकित कहें पर समकित संवर नहीं कहलाता है, कर्म कषाय के अभाव की अपेक्षा से माने हैं, पर निर्जरा तो चौदहवें गुणस्थान तक है । सिद्धों में निर्जरा नहीं है, इसलिये कर्म नहीं है । कर्म बिना किसकी निर्जरा करें ? फिर श्री भगवती सूत्र के अट्टारहवें शतक के तीसरे उद्देश्य में तथा पनवणा सूत्र के पन्द्रहवें पद में "चरिमा निजरा पोग्गला चरिमे कम्मं निजरे" इति वचनात् ! मनुष्य भव में (मानस) चरम निर्जरा है । पश्चात् सिद्धों में निर्जरा नहीं हैं, पर निर्जरा का फल है । कर्म क्षय रूप बंध तेरहवें गुणस्थान तक है । बांधे हुए कर्म चौदहवें गुणस्थान में भी हैं, मोक्ष अर्थात् समय समय कर्म से सर्ग संसारी जीव छूटते हैं । इसलिये देश से मोक्ष सर्व गुणस्थानों में हैं । सर्वथा मोक्ष तो चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में है, सिद्धों को छोड़ने के लिये नहीं है, छोड़े हुए का फल २ - केवल दर्शन, ३ - अनन्त सुख, ४ - क्षायक समकित ५ - अक्षय अजर अमर, ६ - अरूपी, ७ - सबसे उच्च अगुरु लघु ८ - अनंत अकीरण वीर्य । आठ कर्म के क्षय से आठ गुण मिलते हैं तथा सिद्धों को ही मोक्ष कहते हैं ।
१ - केवल ज्ञान,
1
|
एक अपेक्षा सर्व संयोगी जीव में नौ तत्त्व मिलते हैं; चौदहवें गुणस्थान में जीव, संघर, निर्जरा मोक्ष ये चार