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है । तथा पुद्गल के अनन्त प्रदेशी स्कंध कर्म पन में परिणमें, वे उदय भाव में हैं । फिर उपचार से उपशमित किये, पुद्गल क्षय किये, एवं पुद्गल क्षयोपशमित किये इत्यादि की अपेक्षा से उपशम, क्षयोपशम क्षायिक भाव में भी है । . पुण्य जीव के एवं अजीव के उदय में आया तव उदय भाव में तथा सादि पारिणामिक भाव में है ३ ।
ऐसे ही पाप भी जीव अजीव के उदय में आया तव उदय भाव में तथा सादि पारिणामिक भाव में है । आश्रय भी ऐसे ही है ५।
संबर उपशमिक, क्षायिक. क्षयोपशम भाव में है । पारिणामिक भाव तो सर्वत्र फैला हुआ ही है । इसलिये वह भी मिलता है ।
निर्जग भी ऐसे ही तीन भाव में है, उपशम भाव में निर्जरा नहीं है, क्योंकि कर्म आवरण में रहे हुए हैं ७ । ।
बंध 'पुण्य के समान है ८
मोक्ष संवर के समान है परन्तु एक अपेक्षा से क्षायिक भाव में है । ये तो पांच भाव में नौ पदार्थ बताये हैं, अब नौ पदार्थ में पांच भाव इसी रीति से कहते हैं । जीव में पांच भाव है. अजीव, पुण्य, पाप, आश्रय तथा बन्ध इन पांचों में दो दो भाव है, संवर में चार भाव है, निर्जरा में तीन तथा मोक्ष में एक भाव है।
॥ इति भाव द्वार समाप्तम् ।।