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(१७४) उत्पाद, व्यय, ध्रुव द्वार
२१.
उत्पाद नौ पदार्थ नये उत्पन्न नहीं होते हैं, विनाश भी नहीं होते हैं एवं ध्रुव शाश्वत है परन्तु परिणामवशात् प्रण में इस अपेक्षा से कहते हैं। १-जीव की उत्पत्ति नई गत्यादिक में उत्पन्न होवे, नये गुणस्थान में चढ़ना, नये भाव का आदरना। २- व्यय अगली गति आदि को छोड़ना ३-ध्रुव है उसी रूप में रहना । १-जीव द्रव्य से शाश्वत है, धर्म, अधर्म, आकाश, काल की उत्पत्ति जीव पुद्गल को अपने वश में करना, २-व्यय पराये वश होना ३-जैसे जीव पुद्गल स्थिर रहते हैं वह धर्मास्ति का व्यय, चले तो अधर्मास्ति का व्यय, धर्म की उत्पत्ति आदि ध्रुव अर्थात् चार शाश्वत है तथा पुद्गल की उत्पत्ति नये स्कन्ध का होना, व्यय विखरना ध्रुव शाश्वत रहना २ । पुण्य की उत्पत्ति नये शुभ परिणामों का उत्पन्न होना; नये परमाणु का पुण्य रूप में उत्पन्न होना, व्यय विशुद्ध भाव से गिरना, तथा पुण्य का क्षय होना, ध्रुव पुण्य रूप में रहना तथा अनेक जीवों की अपेक्षा से तथा अनेक पुद्गलों की अपेक्षा से शाश्वत है ३ । ऐसे ही पाप की उत्पचि अशुद्ध परिणाम का उत्पन्न होना तथा परमाणु पुद्गल का पाप रूप में परिणतन होना । व्यय से विशुद्ध भाव को ग्रहण करना,