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(१६३) क्खाणा पञ्चक्वाणी, मिश्र व्यवसाय, मिश्र उपक्रम, मिश्र करण, बाल पंडित, धर्म धर्म, श्रुत जागरापन, बाल पंडित मरण ये आश्रव संबर दोनों में। शुभ योग, शुभ लेश्या शुभ ध्यान, शुभ वीर्य ये निर्जरा बंध दोनों में है, ऐसे इसरे पदार्थ भी यथा योग्य स्थान में समाविष्ट होते हैं। श्री ठाणांग सूत्र के दसरे ठाणे में 'जद छीणम् लोगे तं सव्वं दुपडोयारं पन्नते तंजहा-जीव चेव १ अजीवे चेव २' इस न्याय से नौ पदार्थ भी दोनों में समाविष्ट करे । जिसका विस्तार जैसे जीव अजीव द्वार में कहा, जितने २ जीव के निजं गुण उन्हें जीव में समाविष्ट करे, जो जीव के निज गुण नहीं है अभी जीव है पर अन्त में छोड़ देंगे. उन्हें अजीव में समाविष्ट करे । संवर, निर्जरा, मोक्ष जीव में समाविष्ट होवे । पुण्य, पाप, आश्रव तथा बंध ये चार अजीव में समाविष्ट होवे तव तो द्रव्य रहते हैं।
॥ इति समवतार द्वार समाप्तम् ॥
१७. ॐ प्रकृति अप्रकृति द्वार*
जीव प्रकृति या अप्रकृति ? उत्तर-१ जीव द्रव्य स्वयं तो अप्रकृति है तथा जीव का अशुभ गुण छब्बीस प्रक्रति है। जीव के एक सौ अड़चास (१४८) प्रकृति है। २
चार अप्रकृति और एक पुद्गल में, कई एक