Book Title: Jain Tattva Shodhak Granth
Author(s): Tikamdasmuni, Madansinh Kummat
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Swadhyayi Sangh Gulabpura

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Page 182
________________ (१६०) तत्त्व मिलते हैं। उपचार नय से दो तत्त्व पुण्य पाप भी है। सिद्धों में एक जीव तत्त्व है तथा संवर तत्त्व भी कहते हैं, अपेक्षा से मोक्ष तत्त्व भी कहते हैं दूसरे छः तत्त्व नहीं है। * इति गुणस्थान द्वार समाप्तम् * १६ ॐ समवतार द्वार के जीव तत्त्व में कौन कौन समावे ? अनंतानंत जीवों अर्थात् प्राणियों के जीव तत्त्व में समाविष्ट होवे, तथा बारह उपयोग, चार बुद्धि , चार अवग्रह आदि, पांच उहाणादि जीव के गुण में समाविष्ट होवे । चौतीस अतिशय पैंतीस प्रकार की वाणी, एक सौ आठ गुण, जीव के पांव सौ तरेसठ भेद, चौबीस देव, जीव के चौदह भेद, चौदह गुणस्थान, चौबीस दंडक, चार गति, पांच जाति, छः काया, पर्याप्त, अपर्याप्त, सूक्ष्म, वादर, त्रस, स्थावर, इत्यादि ये जीव द्रव्य में तथा पर्याय में सब समाते हैं । अजीव में धर्म, अधर्म, आकाश, काल तथा पुद्गल ये पांच द्रव्य घनोदधि आदि ४, भुवन, पाताल, नरकावासा, द्वीप, समुद्र, घट्टपट्ट, विश्रसा १, मिश्रसा २, प्रयोगसा ३, परमाणु यावत, अनंत प्रदेशी कठिन कालायावत, अनंत गुण, लूखा, छाया, धूप, अंधकार, प्रकाश, पांच वर्ण, पांव

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