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(१५४) तत्व पांचवें गुणस्थान तक है तथा छट्ट से नवमें तक भी वंधता है । उपरांत बंधी के न्याय से जानना तथा दसवें गु० में भी चौदह पाप प्रकृति बांधते हैं उपरांत पाप का बंध नहीं है पाप का वेद चौदहवें गुणस्थान तक है। याश्रव तत्त्व तेरहवें गुणस्थान तक है उसमें मिथ्यात्व पहिले तथा तीसरे गुणस्थान में और अव्रत चौथे गुणस्थान तक तथा एक अपेक्षा से पांच तक, प्रमाद छ8 गुणस्थान तक है । कषाय दसवें गुणस्थान तक है । अशुभ योग तेरहवें गुणस्थान तक है । प्राणातिपातादि पांच आश्रव चौथे गुणस्थान तक है । सर्वथा पाचवें गुणस्थान में, देश से छठे गुणस्थान से आगे नहीं है,फिर भी छठे गुणस्थान में उपयोग विना लगता है । तथा प्रमादवश भी लगता है सातवें से दसवें तक बिना उपयोग से किसी समय आश्रव होने की भजना है, ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें व चौदहवें में आश्रय नहीं करे और होवे तो द्रव्य भाव है, उसका फल नहीं लगता है । तथा एक अपेक्षा से छ? गुणस्थान में नदी प्रमुख उतरते जो हिंसा होवे उसे द्रव्य हिंसा कहते हैं श्री अनुयोग द्वार सूत्र में 'नव उतेय भावओ' इति वचनात् क्योंकि हिंसा करने में उपयोग नहीं है हिसा टालने • का इच्छुक है अतः महा पाप टाल कर स्वल्प लगाता है इसलिए भाव हिंसा नहीं कहलाती है, ऐसे ही अन्य स्थानों पर भी