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(१५६) संभव नहीं है. क्योंकि चौथे पांचवे गुणस्थान में अनेक संग्राम, आरम्भ, विषय, कपाय का सेवन करते हैं, वहां नियमा पाप बंधता है। इसलिये उपयुक्त कथन उपयुक्त प्रतीत नहीं होता है । इसलिये प्राणाति पातादि आश्रव पांचवां गुणस्थान तक नियमा है । दसवें गुणस्थान तक प्रतिभापित होता है। फिर पंचेन्द्रिय की वेदना तो विशेष रूप से पांचवें गुणस्थान तक है तथा अशुभ योग छठे गुणस्थान तक है । शुभ योग तेरहवें गुणस्थान तक है । भंडोपगरण सुकुमम्ग की अयत्ना पांचवें तक तथा छट्टे तक तथा दसवें तक लेवें । आश्रव का छोड़ना तेरहवें तक है । इस प्रकार तेरहवें गुणस्थान तक आश्रव है। चौदहवें में नहीं है. कम आश्रव रूप आश्रव नहीं, पहिले के ग्रहण किये कर्म चौदहवें गुणस्थान के पहिले समय में लगते हैं । इसीलिये चौदहवें गुणस्थान के पहिले समय में शुक्ल लेश्या मिलती
___ यहां कई एक स्वयं अज्ञात होने पर भी दुराग्रह से ग्रसित होकर ऐसा कहते हैं कि-चौदहवां गुणस्थान अलेशी है, तब लेश्या कहां से पावे ? लेश्या तो योग के परिणाम है, योग बिना लेश्या नहीं होवे, और चौदहवां गुणस्थान अयोगी है अतः वहा लेश्या कहां से पावे ? उमका उनर है कि-चौदहवें गुणस्थान का नाम अलेशी कहां बताया है ? अयोगी बताया है, यदि अलेगी कहे तो बाधा नहीं, क्योंकि