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(११५) लेशी, राग द्वेष पतला कर नवग्रेवेयक तक जाने वाले की अपेक्षा समकित दृष्टि महा आरम्भ परिग्रहवन्त महाकपायी, अशुभ योगी, हिंसक, कृष्णलेशी होते हुए भी अल्पकर्मी है, अल्प आश्रवी है निश्चय शीघ्र मोक्ष गामी है इसलिए जो धर्मी है उसे ज्ञान दर्शन दोनों साधना का धर्म है, एक चरित्र साधना नहीं है। किन्तु मिथ्यात्वी के तो ज्ञान दर्शन दोनों नहीं है एक द्रव्य चारित्र है जिस कारण से पांच आश्रव के पांच अंक हल्के हैं परन्तु सम्यग्दृष्टि के तो पहला अंक है ही नहीं अतः चार अंक भारी होवे तब भी पांच को नहीं पहुँच सकते हैं इसलिए समकित दृष्टि की सकाम निजरा है ऐसी निर्जरा शुभ योग से उत्पन्न होती है, इस निर्जरा के अनशन आदि बारह भेद है जो सब
जीवों पर है, उत्तम करणी से कर्म निर्जरा होती है, तप करना, ध्यान घरना, सूत्र पढना 'मनन करना, सीखना, धर्म कथा करना, निदॉप स्थान सेवन करना, कायोत्सर्ग करना, विनय चेयावच्च करना, प्रायश्चित लेना, रस त्याग करना, भीक्षाचरी में अभिग्रह कर धूमना, उणोदरी तप करना आदि निर्जरा के स्थान है । ऐसी निर्जरा से कर्म क्षय होते हैं, अन्तर आत्मा शुद्ध होती है. इसलिए धर्म कहते हैं इस प्रकार निर्जरा तत्व का परिचय हुआ ।
बंध तत्त्व का परिचय देते हैं-शिष्य ने गुरु से पूछा