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देने से होवे भी क्या ? श्री उत्तराध्ययन सूत्र के पहले अध्याय में 'वरं मे अप्पादंतो' कहा है तब अजीव का दमन करने से क्या होवे ? श्री भगवती सूत्र के सत्रहवें शतक के दूसरे उद्देश्य में अट्ठारह पाप, चार बुद्धि, चार अवग्रह, पांच उट्टाणादि शक्ति, चार गति, आठ कर्म, लेश्या, तीन दृष्टि, चार दर्शन, पांच ज्ञान, तीन अज्ञान, चार संज्ञा, पांच शरीर, तीन योग, दो उपयोग में जीव एवं जीवात्मा माना है । इस अपेक्षा आठ तत्त्व जीव है । काया और कर्म को जीव में कहा है तब पुण्य, पाप, आश्रव और बंध को जीव कहने में क्या दोष ? श्री ठाणांग सूत्र के दूसरे ठाणे में काल को जीव अजीव दोनों कहा है क्योंकि काल की दोनों में प्रवृति है । छाया, धूप, वैमानादि को भी जीव का परिग्रह होने के कारण जीव कहा है, तब कर्म एवं काथा इन दो पदार्थ के बिना तो कोई भी स्थान नहीं मिलता । उनके बिना जीव नहीं, जीव के बिना ये नहीं इसलिए सात तत्त्व जीव में मिलाने पर एक तत्त्व अजीव तथा आठ तत्त्व जीव होते हैं । परन्तु मुख्य नय में चार तत्त्व जीव तथा पांच तत्त्व अजीव कैसे ? पुण्य, पाप, आश्रव तथा चंध ये जीव के परगुण है । इसलिये अजीव कहलाते हैं । संवर, निर्जरा, तथा मोक्ष ये तीन जीव के निज गुण है इसलिए जीव कहलाते हैं । श्री अनुयोग द्वार
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