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सूत्र में कहा है कि 'जीव गुण पसारो तिविहे पनते तंजहा १ - नांण गुण पसाणे, २ - दंसण गुण प्पमाणे २ - चरित गुण प्पमाणे तथा श्री उत्तराध्ययन सूत्र के अट्टावीस अध्याय की १० वीं ११ वीं गाथा में भी कहा है "जीवो उवओगलक्खणी । णाणेणं दंसणेणं च, सुहेणय दुहेणय | १ | नाणंच दंसणं चैत्र, चरितं च तत्रो तहा । वीरियं उवओगोय एयं जीवस्स लक्खणं ||२|| फिर श्री आचारांग सूत्र के पांचवें अध्याय के ५३ उद्दे शक में भी कहा है "जे आया से विन्नाया, जे विन्नाया से आया" जो ज्ञान है वह जीव है तथा जो जीव है वह ज्ञान है, यहां ज्ञानादि गुण जीव से अलग नहीं । श्री भगवती सूत्र के पहिले शतक के ९ वें उद्देशक में काला सवेशीय पुत्र को स्थविरों ने फरमाया कि 'आया से अजो ! सामाइए आयाणे अजो सामाइयस्सअड' 'संजम चरिच विउस्सग्ग' सबको आत्मा कहा है यह निज गुण की अपेक्षा से है । परन्तु आश्रव पुण्य पाप को आत्मा कहा । जैसे गुड़ व मिठास एक है वैसे ही जीव और चेतन एक है. अलग नहीं है, इस कारण से जीव के गुण को जीव कहा है. इस अपेक्षा जीव संवर, निर्जरा एवं मोक्ष ये चार तत्त्व जीव है । अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव और बंध ये पांच तत्त्व अजीव है । शुद्ध की अपेक्षा तो १ - जीव,
,
२- अजीव । जीव, अजीव का गुण पर्याय है
।
इस अपेक्षा