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करते हैं और भाव कर्म राग द्वेष मोह आदि जीव के अशुद्ध परिणाम भाव कर्म के कर्ता है जीव चेतना ज्ञान अज्ञान लक्षण वाला है ज्ञान अज्ञान चेतना आदि से सहित है सभी द्रव्य अपना २ कर्ता है, परन्तु पर भाव के कर्ता नहीं है । श्री उत्तराध्ययन सूत्र के बीसवें अध्याय में कहा है । 'अप्पा कता विकता य' अर्थात् आत्मा को कर्त्ता कहा है। यहां कपाय आत्मा, योग आत्मा भाव कर्म के कर्ता है इस अपेक्षा से कहा है परन्तु कषायादि आत्मा पुद्गल है तथा भाव कर्म के कर्ता रागादि परिणाम है उसके सुख दुःख के वेदन करने करने वाले भी रागादि हैं परन्तु व्यवहार से कर्म का कर्ता जीव है, अजीव नहीं है, यदि अजीव कर्म करे तो फिर घट्ट पट्टादि क्यों नहीं करते हैं ? इसलिए अकेला जीव भी कर्ता नहीं है तथा अकेला पुद्गल भी कर्ता नहीं है । जीव कर्मं पुद्गल के संयोग से कर्म करता है और इन सब कर्मों के बंधन का उपाय आश्रव है पुद्गल जीव का अध्यवसाय भी है अतः दोनों से कर्म उत्पन्न होते हैं । जैसे घड़े का बनाने वाला कुम्हार । कुम्हार के अध्यवसाय विना घड़ा नहीं बनता तथा मिट्टी और चाक के बिना भी घड़ा नहीं बनता इसी तरह 'अध्यवसाय और पुद्गल के बिना कर्म नहीं होते । दोनों के संयोग से कर्म उत्पन्न होते हैं एवं भूत नय से तो कुम्हार को ही घड़ा
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