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(१३३) क्रिया के दो भेद कहे हैं। १-समकित क्रिया २-मिथ्यात्व क्रिया । यहां समकित क्रिया से संवर तथा मिथ्यात्व क्रिया से आश्रय । ये दोनों क्रिया जीव कहलाती है । श्री आचारांग सूत्र की टीका में योग, उपयोग, लेश्या, संज्ञा, इन्द्रिय, श्यामोश्वास कषाय ये सब जीव के गुण कहे हैं। आश्रव से कर्म उत्पत्ति होती है । आश्रव कर्म का कर्ता है कर्म का कर्ता जीव है इस अपेक्षा से आश्रव को अरूपी कहते हैं, मिथ्यात्व आश्रव को अरूपी किस अपेक्षा से कहा १ मिथ्यात्व से अतत्त्व में तत्त्व की बुद्धि,' तत्त्व में अतत्त्व की बुद्धि, ऊंची श्रद्धा आदि क्षयोपशम भाव है । मिथ्यादृष्टि अरूपी है, इस अपेक्षा से अरूपी कहा है। (१) अव्रती आश्रव को अरूपी किस अपेक्षा से कहा ? अव्रत वह छः काया की हिंसा के परिणाम, खाना, पीना. देना, लेना ये जीव के व्यापार है । इस अपेक्षा से अरूपी कहा है (२) प्रमाद आश्रव अरूपी किस अपेक्षा से है ? प्रमाद मद्य विषय कषाय की प्रवृति है जो जीव का व्यापार है। इस अपेक्षा से प्रमाद अरूपी हैं (३) कषाय आश्रव अरुपी किस अपेक्षा से है ? कषाय के परिणाम जीव के होते हैं, कषाय आत्मा है इस अपेक्षा से अरूपी है (४) योग आश्रव अरूपी किस अपेक्षा से है ? योग की प्रवृत्ति वीर्याराय के क्षयोपशम से है और योग परिणाम जीव के