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(१२०) तिवण वडिया ग्य में कोई दठाण बटिया ग्म में कोई एक ठाणा बटिया रस में होती है इसीलिए योग के प्रताप से कर्म ग्रहण करते हैं, उसमें कपाय के प्रताप से रम पडना है, अनन्तानुबन्धी कपाय में पाप प्रकृति का चौठाणवडिया रस अप्रत्याग्ज्यानी में त्रिठाण, प्रत्याख्यानी में दुठाण, गंजल में एकठाण वडिया ग्य सत्तर प्रकृति का होवे, और पुण्य प्रकृति का एकटाण वढिया रस होवे, इमलिए अनन्तानुवन्धी कपाय में पुण्य प्रकृति का एक ठाणवडिया रस, अप्रत्याख्यानी में दुठाण, प्रत्याग्व्यानी में भी ठाण, मंजल मा चौठाण बडिया रस होता है यहां शुभ प्रकृति का रस इक्षु, रस के दृष्टांत से समझे । तथा अशुभ प्रकृति का रस निम्ब के दृष्टान्त से समझे, यह अनुभाग बन्ध है ।३
जैसे कोई ला पाव भर का कोई आधा सेर का कोई सेर का, उसी तरह एकक कर्म प्रकृति के परमाणु अभवी से अनन्त गुणा है किसी के थोड़ा किसी के अधिक यह प्रदेश वन्ध है।४ ये चार प्रकार का बन्ध जीव की साथ लोलि भृत है परन्तु कर्म और जीव की तरह अलग नहीं तिल और तेल की तरह एक रूप है, परन्तु कंचुक की तरह नहीं यह बन्ध तत्त्व तेरहवें गुणस्थान तक है जहां आश्रव है वहां बन्ध है, वन्ध का विकार पुण्य पाप है, ये चार आश्रव की करणी से उत्पन्न होता है, यह बन्ध तत्त्व का परिचय हुआ।