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(१०६) वहती देखे तो बाहर निकाले, किसी समय साध्वी के गील की रक्षा करने हेतु साधु साथ भी रहे पडिमाधारी को जलती अग्नि में से बाहर निकाले इत्यादि स्वयं के कार्य करे. संभोगी का करे, वहां माधु आज्ञा नहीं देवे, उसी तरह निषेध भी नहीं करे, अपना दोप टालने के लिए करने नहीं दे, ज्ञय पदार्थ जानते हैं परन्तु गृहस्थी में एकांत पाप कैसे होवे ? यदि साधु के गुण है तो गृहस्थी के अवगुण कैसे होवे ? तथा गृहस्थी के लिए साधु इतने कार्य नहीं करे, नहीं करावे गृहस्थी को मारता हो तो उसे निषेध नहीं करे, अनुमोदन भी नहीं करे, जितनी जितनी जीव रक्षा हो उतना ही धर्म है, जितना जितना अधर्म है उतना अव्रत कपाय का उदय है, उतना पाप है ।
यहां कोई कहे कि जबरदस्ती छुड़ावे तो जबरदस्ती छुड़ाने से धर्म नहीं होवे । कोई स्त्री भागती हो, क्लेश वग जाती हो, पागलं हो, कुंए में पड़ती हो, पति द्वारा ले जायी जाती हो उसे साधु कैसे छोड़े ? कैसे पकड़े ? परन्तु "शील रखने के व अनुकम्पा के शुभ परिणाम है, व्यवहार में धर्म है इसलिए निषेध नहीं करे । दया आदि सब संवर की करणी है संबर ते
प्रवत्ति भाव तो शुभ आश्रव है. इसलिए प्रवृति भाव की आज्ञा तो साधु गृहस्थी को मन योग की तथा वचन योग की देते