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भगवती सूत्र के सातवें शतक में 'कम्मं वेयणा' एवं 'कम्मं निज्जरा' कहा है, वेदन करना कर्म है । निर्जरा करना कर्म नहीं | वेदना अलग है तथा निर्जरा अलग । इसलिए बिना उपयोग से करे वह द्रव्य निर्जरा तथा मिथ्यात्व की करणी निन्हवादि कुदर्शनियों की करणी द्रव्य निर्जरा है और समकित दृष्टि की करणी भाव निर्जरा है निर्जग के दो भेद - १ अकाम निर्जरा और २ सकाम निर्जरा । यदि मन की अभिलाषा बिना भूख, तृषा, शीत, ताप आदि परिषह सहन करे, ब्रह्मचर्य आदि पाले वह अकाम निर्जरा, मन के उत्साह सहित शीत, ताप आदि सहन करना तपस्या करना ब्रह्मचर्य पालन करना सकाम निर्जरा है । तथा सब संसारी जीवों के समय समय पर बिना उपयोग से सात आठ कर्म टूटते हैं उसे अकाम निर्जरा कहते हैं । मुक्ति के फल की अपेक्षा विचार किया जाय तो मिथ्यादृष्टि की दान शील, तप, पढ़ना, मनन करना आदि सब क्रियाओं को सूत्रगडांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के आठवें अध्याय में कर्मबन्ध का कारण बनाया है परन्तु निर्जरा का कारण नहीं यह कथन निश्चय नय से परिज्ञा की अपेक्षा है परन्तु दूसरा अर्थात् व्यवहार नय से मिथ्यात्व शुभं करणी से अशुभ कर्म क्षय होते हैं और शुभ कर्म चांधते हैं देवता प्रमुख की गति प्राप्त करता है । श्री उत्तराध्ययन सूत्र के