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(१००) तंजहा १ मिच्छते २ अविरह ३ पमाया ४ कसाया ५ जोगा इस न्याय से जो योग वह आश्रय इसलिये वीतराग को ११, १२, १३वें गुणस्थान में भी योग के प्रभाव से इरियावहि क्रिया लगती है इस कारण सयोगी जीव पानी के समान क्षण मात्र निश्चल नहीं रह सकते, इसलिये सूक्ष्म क्रिया लगती है जिसकी दो समय की स्थिति है, उस समय अशुभ योग तो नहीं पर शुभ योग से कर्म बंधता है । वीतराग के कषाय का उदय मिटा, जिससे अनुभाग बंध नहीं होता है स्थिति भी नहीं, चौदहवें गुणस्थान में आश्रव नहीं है अतः कर्म भी नहीं बन्धे श्री उत्तराध्ययन सूत्र के उनतीसवें अध्याय में 'काय गुत्तयाएणं संवरं जणयइ संवरेण कायगुत्ते पुणो पावासव निरोहं करेइ' संवर से पाप पुण्य दोनों का निरोध होता है । संवर निश्चय नय में तो सम्यकदृष्टि के होता है, परन्तु द्रव्य संवर सब संसारी जीवों के होता है, संवर के मूल भेद तो सम्यकदृष्टि के बिना दूसरों के नहीं होते हैं तथा क्षमाभाव, समभाव, दमभाव, नम्रभाव, सत्यशील, दया के परिणाम, शुभ अध्यवसाय सब जीवों के पास होते हैं, इस कारण अनुकंपा अमत्सरता से मनुष्यपन उपजावे । जीव हिंसा से निवत्त होना, निश्चय दया एवं निश्चय संवर है, तथा यदि दूसरे जीव को दुःखी देखकर अनुकम्पा लावे, उसके दुःख को दूर करने का उपाय करे यह व्यवहार दया कहलाती है।