________________
(१०१)
यहां कई लोग ऐसा कहते हैं कि दूसरे को हनन नहीं करना ही दया है परन्तु दूसरे का दुःख दूर करना तो राग का उदय है और राग तो पाप है इसलिये दूसरे जीव का हनन करे नहीं दूसरे से हनन करावे नहीं तथा दूसरा हनन करे उसका अनुमोदन नहीं करे। यदि दूसरा करता हो तो उसे उपदेश देवे पर जीव पर अनुकम्पा नहीं लावे, दूसरे जीव पर अनुकम्पा लाकर उसे दुख से बचाना असंयम जीवितव्य की वांच्छा है, उस जीव पर राग आया परन्तु भगवान ने तो राग द्वेष दोनों को ही कर्म के बीज फरमाये हैं, अतः मारे तो जीव हिंसा का पाप लगे तथा धर्म जानकर मारते हुए को बचावे तो मिथ्यात्व लागे, अट्टारह पाप लागे, ऐसी प्ररूपणा करने वाले के हृदय में अनुकम्पा नहीं होती है। ऐसी प्ररूपणा अनार्यों का कार्य हैं जो निर्दय होते हैं वे ऐसा कहते हैं ऐसा कहने वाला सभी व्यवहार का उत्थापक है। यदि जीव हिंसा से निवर्तने में धर्म है, तो फिर दूसरे प्राणी का उद्धार करने में धर्म क्यों नहीं ? यदि असत्य वचन की निवृति से धर्म है तो सत्य भाषण से धर्म नहीं ? उनकी दृष्टि से तो सर्व प्रभुता के भाव नष्ट हो जाते हैं परन्तु सूत्र में तो
1
अनुकम्पा स्थान २ पर बताई है । श्री भगवती सूत्र के सातवें शतक में दूसरे जीव को दुःख देने से अशाता वेदनी