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( हह )
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के भेद जितने जितने निवर्ते भाव में है वह निश्चय संवर है । जितने जितने प्रवृत्ति भाव है वह व्यवहार संवर है । जैसे शुभ योग का प्रवर्तना भंडोपगरण, सुची कुस्सग्ग का यत्ना पूर्वक प्रवर्ताना ये सब आश्रव है इनसे शुभ कर्म बंधते हैं जहां पुण्य बंधता है वहां निश्चय निर्जरा है, निर्जरा की करणी से पुण्य पुण्य बंधता हैं, निर्जरा की करणी के बिना पुण्य बन्ध नहीं होता है । पुण्य आने के द्वार तो शुभ आश्रय है । इसलिये श्री उत्तराध्ययन सूत्र के उनतीसवें अध्याय में 'वदंणयाएणं निया गोयं कम्मं खवेश, उच्चा गोयं कम्मं निबंधह' कहा है। यहां वन्दन से नीच गोत्र क्षय हो, वह निर्जरा उच्च गौत्र बंधन करे वहां पुण्य प्रकृति बांधी. इसलिये ये बन्ध द्वार है तथा जहां शुभ योग की प्रवृत्ति हो वहां निश्चय अशुभ योग का निषेध है, इसलिए शुभ योग प्रवर्तने से शुभ आश्रव होता है, शुभ बंध, पुण्य प्रकृति का होता है तथा अशुभ योग रोकने से संबर उत्पन्न हुआ है, इनसे आते हुए कर्म रुके इसलिये जहां समिति गुप्ति की नियमा है तथा जहां गुप्ति वहां समिति भजना है परन्तु कारण शुभ योग है अतः शुभ आश्रव है, परन्तु संवर नहीं, इसलिये श्री समवायांग सूत्र में 'पंच संवरदारा पन्नते तंजहा १ सम्मतं, २ विरइ, ३ अप्प - माओ, ४ व्यकसाइ ५ अजोगीतं, पंच आसवदारा पनते
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