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माणो' (गाथा २१ द्वितीय पाद) इति वचनात् अर्थात् पुण्य नहीं करता हुआ जीव परलोक में पहुँचने पर पश्चाताप करता है । तथा फल का पुण्य कहां कहा है ? तो कहते हैं कि 'आया ममं पुण्ण फलोववेए'(गाथा १० चतुर्थपाद) इति वचनात् । अर्थ-मेरी आत्मा पुण्य फल युक्त है । कर्म को पुण्य कहां कहा है ? इसका उत्तर है कि श्री भगवति सूत्र के अठारहवें शतक के तीसरे उद्देश्य में 'अणंते कम्म से खवेइ' इति वचनात् ! यह तो उपचार से पुण्य कहलाता है, परन्तु वास्तव में तो पुण्य रुपी ही होता है इसके दो भेद किस प्रकार हुए १ जिस दानादिक से शुभकर्म की प्रकृति बंधी है वह जहां तक जीव की सत्ता में है परन्तु उदय भाव में नहीं आवे वहां तक उस पुद्गल को द्रव्य पुण्य कहा है । शंका-यह कैसे ? द्रव्य तो भाव का कारण है । तथा भवी शरीर द्रव्य निक्षेप की अपेक्षा से श्री उत्तराध्ययन सूत्र के बाइसवें अध्याय में प्रभु नेमीनाथजी को संसार में रहते हुए भी 'लोग नाहे दमीसरे' कहा है इति वचनात् । लोक नाथ और दमीश्वर अर्थात् इन्द्रियों के दमन करने वालों में ईश्वर है । जो कि अभी तो लोक के नाथ नहीं परन्तु अनागत काल में होंगे, प्रव्रज्या लेंगे, इस कारण से द्रव्य निक्षेप से लोक नाथ कहा है। इसी न्याय से जहां तक उदय नहीं आया हो वहां तक उन परमाणुगों को द्रव्य पुण्य कहते हैं। जब उदय भाव में