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( ४० ) अशुभ कर्म क्षय होवे उसे निर्जरा कहते हैं। इस दान से शुभ वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, सहित अनन्त प्रदेशी खंध कर्म द्रव्य वर्गणा में से चौ प्रदेशी पुद्गल जीव को आकर लगते हैं इस प्रकार अन्योन्य कैसे होते हैं ? जिन परमाणुओं को द्रव्य पुण्य कहते हैं, वे पुण्य वन्ध के समय से जघन्य अंतम हुर्त उत्कृष्टा तीस कोड़ा क्रोड़ सागर पर्यंत जीव के पास सत्ता रूप रहते हैं इस द्रव्य पुण्य में से परमाणु अपने अपने अबाधा काल व्यतीत होने के पश्चात नियमा उदय में आते हैं, यह उदय दो प्रकार से आता है-(१) विपाक से
और (२) प्रदेश. से । जव पुण्य प्रकृति के परमाणु जीव के पास से समय २ में क्षीण होते हैं, परन्तु रस नहीं देवे तव उसे प्रदेगोदय कहते हैं और जब रस देकर क्षय होते है तव उसे विपाकोदय कहते हैं । जिस प्रकृति के उदय आने से उच्च गौत्र, धन धान्य, पुत्र कलत्र, आरोग्यता यश नाम एवं शुभ गति आदि वस्तु पावे उसे उपचार से पुण्य के फल के कारण द्रव्य पुण्य कहते हैं। इसलिये पुण्य की करणी अरूपी है और पुण्य के परमाणु चौ प्रदेशी खंध है तथा पुण्य के फल अप्ट प्रदेशी भी है यह पुण्य की करणी भाव पुण्य है, अब शेष द्रव्य पुण्य कहा जाता है। यहां कोई इस प्रकार कहे कि- "परिणाम में क्रिया को पुण्य कहा बताया है ।" इसका समाधान श्री उत्तराध्ययन सूत्र के तेरहवें अध्याय में कहा है कि-"धणियं तु पुण्णाई अकुब