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लेना अन्नत में है यही न्यूनता है। परन्तु बाहुलता की अपेक्षा धन है, सूत्र में पडिमाधारी श्रावकों को 'समण भृत' कहा है। यदि जो कसर सहित धर्म दान में नहीं माने उन्हें इस प्रकार पूछे कि इन दस दानों में कौनसा दान है. यह कहो ! इसे कितने ही धर्म दान के अन्तर्गत लेते हैं, परन्तु यह बात ठीक नहीं जंचती । यदि धर्म है तो फिर एकांत आज्ञा क्यों नहीं दी ? ऐसा प्रश्न उठे तब कहे कि हमारा कल्प नहीं । तब उन्हें पूछे कि, धर्म का कल्प नहीं ? तब कहे कि स्थविर कल्पि, जिनकल्पि को नहीं देवे यह कैसे ? उनसे इस प्रकार कहे कि कल्प नहीं परन्तु देने में धर्म जानते हैं और देने की आज्ञा देते हैं। और कारण उपस्थित होने पर देते भी हैं, परन्तु श्रावक तो दोनों ही करे। इस कारण से एकान्त धर्म नहीं जाने और जो पडिमाधारी श्रावक का दान एकान्त धर्म में है तथा पुण्य कहा जाता है, और पुण्य का जो कारण कहते हैं वह अविचारी भाषा के बोलने वाले मालूम पड़ते हैं, इस कारण वीतराग भगवान ने गृहस्थ के सभी दानों में मौन कहा तथा जिसने पुण्य का कारण कहा उनका मौन भंग हुआ। जो पडिमाधारी को देवे उसके भी तीसरे करण में न्यूनता लगती है, तथा कई एक अधर्म दान का पालन करते हैं, श्री भगवती सूत्र के आठवें शतक के छ8 उद्देश्य में