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स्वामिवच्छल प्रभावना को समकित का आचार कहा है, श्री ठाणांग सूत्र में चतुर्विध संघ में श्रावक को रत्न का पात्र कहा है । एवं श्री भगवती सूत्र में श्रावक को रत्न की माला समान कहा है, परन्तु आठ दान वाले को रत्न का पात्र व रत्न की माला के समान नहीं कहा । यहां कोई कहे कि 'उसको मूझता देने से अठारह पाप में से कौनमा पाप लगता है ? क्योंकि उन्नीसवां पाप तो है नहीं' उनसे ऐसा कहें कि 'गृहस्थ को साधु आने जाने के लिए कहे तो अट्ठारह पाप में से कौनसा पाप लगता है ? तब वे कहे कि गृहस्थ को आने को किस प्रकार कहे ? तो उसके दान में पुण्य किस प्रकार कहे ? आने जाने की कहने से उसके पाप की अनुमोदना होती है। इसी प्रकार दातार को भी पाप की अनुमोदना आती है । क्योंकि लेना देना दोनों अत्रत में है।
प्रश्न होता है कि पडिमाधारी पांचवें गुणस्थान में है या छठे गुण स्थान में ? इसके उत्तर में कहे कि छट्टे गुण स्थान में नहीं । तो पांचवें गुणस्थान वाले को देने से सावध पुण्य है, निर्वद्य नहीं, इसलिए वह दान में किस प्रकार सम्मिलित हो ? तथा चतुर्विध संघ के हित वात्सल्य से सनत्कुमार इन्द्र हुआ ऐसा कहा परन्तु आठ दान से हुआ ऐसा नहीं कहा, वह धर्मदान में है यहां श्रावक को