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(८६) है, फिर सातवें गुणस्थान में छदमम्थ के सात लक्षण कहे हैं. उसमें १ हिंसा करे, २ झूठ बोले, ३ चोरी करे,
४ शब्दादि वेदे, ५ सदोष आहार ले. ६ पूंजा सत्कार बंछे, ७ वागरे लीसो न करे ये सात शुद्ध लक्षण केवली के कहे हैं. फिर ठाणायंग सूत्र के चौथे ठाणे में चार प्रकार से केवल ज्ञान उत्पन्न नहीं होना बताया है। १ हर समय स्त्री कथा, २ भक्त कथा, ३ देश कथा, ४ राज कथा करे १ अशुद्ध आहार का छोड़ना २ काउसग्ग करते समय आत्मा में सम्यक भाव नहीं ३ अगली पिछली रात्रि मे धर्म जागरण नहीं करना ४ शुद्ध सामुदाणीक ऐषणीक गोचरी नहीं करे, फिर पांचवें आरे के जीव वक्र एवं जड कहा इसलिये पांच बातें समझाना दुष्कर कहा है तथा श्री भगवती सूत्र के सातवें शतक में सकषाय माधु दसवें गुण स्थान तक कहे हैं अतः सूत्र के न्याय से नहींचलकर विपरीत चलते हैं । इसलिये सम्पराय किया लगती है, सात आठ कर्म का बन्ध करते हैं वीतराग ११, १२३, १३, गुण स्थान में होते हैं वे सूत्र के न्याय से चलते हैं, परन्तु एक शाता वेदनी बांधे इसलिए दो घड़ी पर्यन्त सूत्र के भी न्याय से चले तो निश्चय केवल ज्ञान उत्पन्न होता है ।
फिर श्री कल्प सूत्र में पांचवें आरे के जीवों को क्लेश करने वाले, झगड़ा करने वाले, असमाधि करने