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तक है अतः प्रश्न होता है कि साधु का आहार किस में है ? व्यवहार नय की अपेक्षा तो साधु का आहार निवेद्य है, सावध आहार के तो साधु के त्याग है, पाप रहित है, मोक्ष माधन का हेतु है श्री दशबैकालिक मूत्र के पांचवें अध्याय के पहले उद्देश्य की ९२वीं गाथा में कहा है कि 'मोक्खमाण हेउस्स साह देहस्स धारणा' अर्थात मोक्ष के माधन हेतु साधु शरीर की धारणा करे अतः शरीर का आधार भृत आहार धर्म का सहायक है, संयम का आश्रय है, इसलिए कारण कार्य की एकता मानकर व्यवहार नय से साधु को आहार धर्म माना गया है । तथा श्री भगवती सूत्र के सोलहवें शतक के चौथे उद्देश्य में "अन्न गलाय" श्रमण निग्रंथ आहार करता हुआ नारकी का जीव सौ वर्षे में जितने कर्म तोड़ता है उससे भी अधिक कर्म तोड़ता है। श्री दशकालिक सूत्र के चौथे अध्याय में 'जयं भुजंतो भासंतो' इति वचनात् निश्चय नय की अपेक्षा साधु का आहार आश्रव में है श्री उत्तराध्ययन सूत्र के २९वें अध्याय के १३. सूत्र में "पच्चक्खाणेणं आसव दाराई निरु भइ " अर्थात् पच्चक्खाण करने से आश्रव द्वार का निरूंधन होता है, और आश्रव जानकर त्याग करते हैं, संवर के पच्चक्खाण तो कभी होते नहीं यदि आहार पाप में हो तो साधु के पाप करना नहीं, यदि धर्म हो तो साधु को छोड़ना