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(६८) के लिए विजय चोर को अन्न ढिया उसी प्रकार माधु अपना ज्ञान दर्शन रूप निज गुण के प्राप्त करने के लिए चोर समान इम काया को आहार देते हैं जिस प्रकार उत्पलावधमी के अधिकार में मलदेव गजा ने सम्पूर्ण माल का पता लगाने के लिये मंडित चोर को आहार दिया इसी प्रकार साधु मी नानादिक अधिक माल निकालने के लिए काया रूपी चोर को आहार देते हैं। फिर मूयगडांग सूत्र के सत्रहवें अध्याय में जिस प्रकार गृहस्थ भार वहन करे तब तक गाड़ी को वांगते हैं उसी प्रकार साधु इन काया से संयम भार वहन करे तब तक काया को आहार देते हैं फिर ज्ञाता सूत्र के अद्यारहवें अध्याय में जिस प्रकार धन्ना सेट ने राजगृही में पहुंचने के लिए सुसमा पुत्री का मांस खाया उसी प्रकार साधु मोक्ष नगरी में पहुंचने के लिये आहार करते हैं। इसलिए साधु का आहार व्रत में कहा है जो सूत्र के विरुद्ध जान पड़ता है श्री उत्तराध्ययन के १८३ अध्याय में साधु को तपोधन कहा है परन्तु खाने वाले को नहीं कहा । श्री ठाणांग सूत्र के तीसरे ठाणे में साधु का तीसरा मनोरथ-लेहणा करूंगा आहार का जिस दिन त्याग करुंगा वह ढिवम धन्य होगा इसलिए यदि आहार व्रत में हो तो ऐसा नहीं कहते फिर धर्म के दो भेद-१. श्रुतधर्म तथा चारित्र धर्म, परन्तु आहार को धर्म नहीं कहा तथा