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(६४) श्री आचारांग सूत्र के पच्चीसवें अध्याय में ओघ के दो भेद किये हैं:- द्रव्य ओघ पानी का प्रवाह तथा भाव ओष मिथ्यात्वादि के कर्म जल का प्रवाह आवे वह फिर श्री भगवती सूत्र के तीसरे शतक के तीसरे उद्देश्य में मंडित पुत्र को कहा कि " जिस प्रकार छिद्र सहित नाव पानी में चलावे तब वह नाव छिद्र के द्वारा (आश्रव द्वार) पूरी भरकर पानी में नीचे बैठ जाती है।" इसी आते हुए कर्म को आश्रव कहा है । दरवाजे (छिद्र) से नाव भरती नहीं नाव तो पानी से भरती है उसी प्रकार जीव भी अशुभ भाव के भार से भारी नहीं होता अपितु नये कर्म रुप आश्रव आवे उनसे भारी होता है इसलिए आते हुए कर्मों को आश्रव कहते हैं। आते हुये कर्मों को आश्रय नहीं गिने तो भगवती सूत्र के पाठ की उत्थापना होती है. इसलिए आते हुए कमों को भी आश्रव मानना चाहिये । द्रव्य आश्रव के उदय से भाव आश्रव उत्पन्न होता है, एवं भाव आश्रय से द्रव्य आश्रव उत्पन्न होता है। यहां अंडे एवं मुर्गी का दृष्टान्त समझने के लिए उपयुक्त है। ____ आश्रय के पांच भेद मिथ्यात्वः-पहिले जीव ने मिथ्यात्व मोहनी कर्म का बंध किया वह द्रव्य मिथ्यात्व उसके उदय से अतत्व में तत्त्व की बुद्धि, तत्त्व में अतत्त्व की बुद्धि ऐसी श्रद्धा उत्पन्न होती है उसे मिथ्या दृष्टि कहते