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निर्वद्य से पुग्य हो तो फिर अन्न पुण्य भी निर्वद्य से हो। जिनको नमस्कार करने से पुण्य उनको अन्न देने से भी पुण्य, ये नौ पुण्य समान हैं, इसलिए सर्वत्र पुण्य का मिक्षण है । कहीं थोडा कहीं बहुत । इस कारण से पुण्य के अपेक्षा से अन्य दूसरे को देने से अन्य पुण्य प्रकृति कही है परन्तु एकान्त पुण्य नहीं, क्योंकि यदि सब को देने से एकान्त पुण्य होवे, तो फिर पात्र कुपात्र की क्या विशेषता ? माधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका, मिथ्यात्वी
आदि मभी समान हो जावे ? गुण का कारण ही नहीं रहा ! तथा सूझता, असूझता, मचित, अचित सब समान हुए । इत्यादि परिस्थितियों का विचार करने पर उनका कथन नहीं मिलता है अन्य कोई इस प्रकार कहे कि 'साधु को छोड़ दूसरे सब दानों में पाप है उनका भी एकान्त सूत्र विरुद्ध कथन है । इसलिये साधु को छोड़कर सब दूसरे दानों में पाप कहा है। उसने दान का उत्थापन किया
और दान उत्थापन करे उसे मिथ्याभाषी एवं अन्तराय देने वाला कहा है।
श्री भगवती सूत्र के पांचवें शतक के छ? उद्देश्य में वस्तु विक्रेता को जब तक किराना नहीं दिया हो तब तक भारी क्रिया लगती है,और किराना देने से हल्की क्रिया लगती है, रुपया लेन से रुपये की भारी क्रिया लगती है ऐसा